तापमान में हर रोज तेजी से गिरावट के साथ, आगामी सर्दियां हिमाचल में आवारा मवेशियों के लिए भयानक है। आश्रय की कमी और गिरता तापमान इन कमज़ोर जानवरों के लिए घातक हो सकता है। सर्दियां भोजन की कमी लाती हैं, और भूख का सामना करते हुए ये जानवर प्लास्टिक की बोतलों, और पॉलीबाग और गनीसैक बैग तक खाने का सहारा लेते हैं। इसके परिणामस्वरूप उनकी धीमी और दर्दनाक मौत होती है। सर्दियों में ये जानवर अधिक आर्थिक नुकसान भी पहुंचा सकते हैं क्योंकि वे कृषि भूमि में घुस जाते हैं। गर्मियों में जो आवारा जानवर जंगलों और खुली चरागाहों में खाना ढूंढ पाते हैं, उन्हें बर्फबारी होने पर सड़कों पर आने पे मजबूर होना पड़ता है।
क्यूंकि सरकार इन गरीब परित्यक्त आत्माओं के भाग्य के प्रति लापरवाह है, इसलिए हिम गौ संरक्षण समिति जैसे गैर सरकारी संगठनों(NGOs) ने इन पशुओं के चारे और आश्रय की व्यवस्था करने में मदद करने का बीड़ा उठाया है।
डॉ. राजेंद्र अत्री ने 2020 में आवारा पशुओं की समस्या के समाधान के लिए इस एन.जी.ओ. की शुरुआत की। उन्होंने अपने जीवन भर की कमाई का उपयोग करके डॉ यशवंत सिंह परमार गौसदन (आरण्यक) का निर्माण किया। ये गौशाला पझौता, राजगढ़, सिरमौर में स्थित है और यहाँ 160 से अधिक वृद्ध, अशक्त और परित्यक्त मवेशी रहते हैं।
भले ही गाय को हिंदू धर्म में अमूल्य बताया गया है, लेकिन जैसे ही वो दूध देना बंद कर देती है, लोग उन्हें सड़कों पर छोड़ देते हैं। बढ़ते मशीनीकरण और युवा पीढ़ी के कृषि की तरफ घटते रूझान के कारण बछड़ों को तो जन्म के तुरंत बाद ही छोड़ दिया जाता है।
हिमाचल में तुरंत ही अधिक गौशालाओं और गौ अभ्यारण्यों की आवश्यकता है। राज्य में कई गौशालाएं पूरी क्षमता से चल रही हैं, और जो विस्तार करना चाहती हैं, उनके पास ऐसा करने का कोई आर्थिक साधन नहीं है। सरकार नए आश्रयों के निर्माण के लिए गैर–सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए एक योजना शुरू करने का दावा करती है, लेकिन उन निधियों के संवितरण में महीनों या सालों लग सकते हैं।
सरकार गौशालाओं को 700 रु० प्रति मवेशी प्रति माह प्रदान कर रही है, लेकिन यह राशि गौसदनों के खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। एक वयस्क जानवर को खिलाने की लागत 2000-5000 रुपये प्रति माह तक हो सकती है। इसके अलावा, गौशालाओं को अन्य खर्चों जैसे कि श्रमिकों की मजदूरी और बुनियादी ढांचे के निर्माण और रखरखाव की लागत का भी बोझ उठाना पड़ता है। और चूंकि गौशालाओं में आने वाले जानवर बूढ़े, कुपोषित और अक्सर दुर्बल और रोगग्रस्त होते हैं, इसलिए चिकित्सा पर व्यय बहुत अधिक होता है।
इस मुद्दे को हल करना सरकार की जिम्मेदारी है, और यह मामला हिमाचल प्रदेश के उच्च न्यायालय के समक्ष भी आया है। गौसेवा आयोग, डीसी शिमला और पशुपालन विभाग से संपर्क करने के बाद, हमें निराशाजनक प्रतिक्रिया मिली है। ऐसा लगता है कि गाय का कल्याण सिर्फ एक चुनावी हथकंडा है।
सरकार और नौकरशाही से कोई अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं मिलने के कारण हम हिमाचल प्रदेश के नागरिकों से अपील करते हैं कि वे इन जानवरों के कल्याण के लिए पहल करें। यह हमारी सामूहिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वर्षों की सेवा और समृद्धि के बाद हम इन जानवरों को छोड़ने की अमानवीय प्रथा का सहारा न लें। हमारे राज्य के निवासियों को अपने आस–पास की गौशालाओं के काम में योगदान देना चाहिए – चाहे ये मदद आर्थिक रूप से हो , या अपना समय देकर की जाए।
इस समस्या के निवारण के प्रति सरकार और नौकरशाही की प्रतिक्रिया तेजी से होनी चाहिए, और अत्यधिक देरी अस्वीकार्य है। गौशाला को अधिक वित्तीय सहायता समय की आवश्यकता है और ये मदद मौद्रिक अनुदान के रूप में हो ये जरूरी नहीं। सरकार गौशालाओं को चारे का वितरण शुरू कर सकती है — बड़ी मात्रा में चारे की खरीद में लागत कम हो सकती है।
हिम गौ संरक्षण समिति न केवल अपनी गौशाला के लिए, बल्कि राज्य में काम करने वाले अन्य लोगों के लिए भी आवारा पशुओं के लिए धन जुटाने की दिशा में काम कर रहे हैं। क्राउडफंडिंग ही आगे के लिए हमें सही रास्ता दीखता है। इसके अतिरिक्त जनहित याचिका दायर करने जैसे कानूनी विकल्पों का भी हम सहारा लेंगे ताकि सरकार और नौकरशाही के तंत्र के काम को गति दी जा सके।
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